पत्रकारों को
मर्यादा की शिक्षा क्यों? मनोज कुमार द्विवेदी अपने कमीज के
अन्दर न देख पाने वाले लोग मौका मिलने पर नसीहत देने से नही चुकते देश में चार
स्तंभ कहे जाने वाले दो स्तंभ समय-समय पर अपनी सुविधानुसार चौंथे स्तंभ का उपयोग
करने से नही चूकते और आयोजनो पर मौका मिलते ही नसीहत की घुट्टी देने से भी नही
चूकते ,किन्तु जब यह नसीहत कोई अपना भरी सभा में दे तो उसे भी सोचना
होगा कि कहीं हम तो यही कर यह मुकाम हासिल किये। आम ग्रमीण पत्रकारिता के दम पर
महानगर की पत्रकारिता करने वाले इसे भूल जाते है।
संभागीय
मुख्यालय शहडोल में 28 फरवरी 2020 को पत्रकारो का संभागीय सम्मेलन एवं
कार्यशाला में शामिल मप्र सरकार के द्वय मंत्री प्रदीप जायसवाल और ओमकार सिंह
मरकाम के बेबाक उद्बोधन तथा राजसभा टीवी के पूर्व निदेशक,देश के
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल के कटाक्ष को याद किया जाएगा। ऐसा नहीं कि जो उन्होने
कहा, वह
लोगों को बहुत अच्छा लगा या पहली बार कहा गया। बल्कि इसलिए कि सुनामी की तरह बढ़ती
पत्रकारों की संख्या, उसके पीछे की मंशा तथा इससे पत्रकारिता एवं समाज पर दिख रहे
असर से अब सभी चिंतित हैं। वास्तविक पत्रकारों एवं छद्म पत्रकारों के बीच की रेखा
अब इतनी धुंधली पड़ती जा रही है कि पत्रकारिता अब समाजसेवा का माध्यम नहीं अपितु
पेशा माना जा रहा है।
मंत्रियों के
साथ राजेश बादल जैसे नामचीन पत्रकार थे तो दो आईपी एसएडीजीपी जी जनार्दन और डीआईजी
आर एस उईके,दो आईएएस कलेक्टर चन्द्रमोहन ठाकुर, सीईओ पार्थ
जायसवाल सहित तमाम गणमान्य नागरिक, चार -पांच जिलो के पत्रकार उपस्थित थे।
एक मंत्री ने जब यह कहा कि पत्रकारों को मर्यादित रह कर अपनी सीमा स्वयं तय करना
चाहिए। तो यह सिर्फ उनकी चिंता नहीं है। जब दूसरे मंत्री ने बड़ी सरलता से यह कहा
कि मजदूर, किसान की तरह पत्रकार भी श्रम से सीधा जुड़ा है तो पता नहीं कि
उन्हे यह पता भी है या नहीं कि पत्रकारिता श्रमसाध्य तो है लेकिन कोई सरकार किसान,
मजदूरों
के उलट पत्रकारों के मेहनताने,वेतन,मजदूरी की
चिंता नहीं करता। उल्टे इन्हे ही चिंता का कारण मान लेता है।
केन्द्र तथा
राज्यों में सरकारें चाहे किसी भी दल , विचारधारा की हो,सबको
प्रचार - प्रसार की जरुरत तो रही है, पत्रकारों की नहीं। मीडिया घराना,
अखबार
मालिकों को ही पत्रकारिता का पर्याय मान लिया गया। सत्ता बचाए रखने ,चोरी-निकम्मेपन-
सत्ताजनित कमजोरियों को छुपाए रखने के लिये बड़े अखबार मालिकों, चैनलों
को विज्ञापनों, अधिमान्यता के टुकड़े तो डाले जाते हैं लेकिन छोटे, मझोले
समाचार पत्रों,वेब पोर्टल के संपादकों, जिला - तहसील
में काम करने वाले पत्रकारों - प्रतिनिधियों के हिस्से कुछ भी नहीं आता। अपने जीवन
में सम्मानजनक वेतन पाने वाले स्थानीय संपादकों, जिला -तहसील
प्रतिनिधियों को नहीं देखा। कुछ नाम मात्र के वेतन पर,तो कुछ
मानसेवी पद पर आज भी वर्षों से सेवाएं दे रहे हैं। जिला एवं तहसील स्तर के
पत्रकारों से पैसे लेकर एजेंसी दी जाती है। अपने बूते या कमीशन पर वह समाचार ,विज्ञापन
के लिये भाग दौड़ करता रहता है। जिसके लिये जो जितना कुशल, उतना
मेहनताना मिलता है। इसके लिये नेताओं,अधिकारियों से संबध बनाए रखना
उसकी मजबूरी बन जाती है। यह जनता की नजर में उसे बिकाऊ, भांड,
चमचा,
भक्त,
ब्लैकमेलर
,धंधेबाज
बनाता है तो कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की नजर में पत्तलकार।
यहीं एक ऐसी
बारीक रेखा है जो हमें मर्यादा में रहने, सीमा रेखा स्वयं तय करने की
शिक्षा समय समय पर आवश्यकता / अनावश्यकतानुसार ग्रहण करने को बाध्य करती है। जब
राजेश बादल जैसे वरिष्ठ पत्रकार यह कहते हैं कि पत्रकारिता कोई पेशा या रोजगार का
माध्यम नहीं,अपितु समाजसेवा का माध्यम है तो वह थोड़ा अर्धसत्य सा लगता है।
उनकी या मंत्रियों की बातों से असहमत हूं ऐसा बिल्कुल नहीं है। उन बातों मे थोड़ा
लेकिन,किन्तु,परन्तु की गुंजाइश है।
मानना है कि
वकालत,राजनीति की तरह पत्रकारिता लोकतंत्र एवं समाज की बड़ी
आवश्यकताओं में से तीन हैं?। लेकिन विचित्र यह है कि नितान्त जरुरी
होने के बावजूद इसमे योग्यता अनिवार्य नहीं है। ना ही समानता जैसी कोई बात इसमें
लागू है। समाजसेवा का भाव जरुरी होने के बावजूद कही दिखता नहीं है। जो इसके माध्यम
से वास्तविक समाजसेवा कर रहे हैं, उनकी
कोई जगह है नहीं। पढ़े लिखों के साथ पढ़े लिखे अनपढ़ तथा नितांत अर्द्ध अनपढ़ तक
इन तीनों विधाओं मे बहुतायत से मिल जाएगें
जो इन पवित्र संस्थानों से स्व जनित हताशा,उपहास, बदनामी का बड़ा
कारण है। शक्ति का पर्याय होने के कारण सम्मान की जगह भय के कारण आम व्यक्ति इनसे
दूरी बनाए रखकर अवसर मिलते ही शर्मनाक/अपमानजनक भाषाओं से नवाजता दिख जाता है। यह
देश,समाज
के साथ इन संस्थानों के लिये चिंता का विषय है। यह स्पष्ट है कि जब तक स्वतंत्र
चारागाह समझ कर इस विधा का दुरुपयोग लोग करते रहेंगे...जब तक बिना वेतन/ बिना
पर्याप्त मानदेय पत्रकारिता होगी तब तक विज्ञापनों की आड़ मे प्रत्यक्ष या
ब्लेकमेलिंग के द्वारा धनार्जन का अघोषित आपराधिक प्रयास होता रहेगा। जब तक स्व
नियंत्रित ठोस केन्द्रीय नीति नहीं होगी,लोग पेट भरने - परिवार पालने की
मजबूरी की आड़ में भ्रष्टाचार रोकने के बहाने स्वयं कलम/ कैमरे दिखला कर डांका
डालेगें। कहने को भले ही पत्रकारों के बहुत से संगठन हों,इनसे
पत्रकारों का बहुत भला होता दिखता नहीं है। सदस्यता की मारा मारी में जब किसी भी
ऐरे गैरे को सदस्य बनाया जाएगा तो उसके कुकर्मों को ढ़कनें की होड में शक्ति
प्रदर्शन होगा ही। थोड़ा अशालीन भाषा की छूट लेते हुए कहें तो देश की जड़ों को
मजबूत करने के लिये सभी चारों घुन लगे पायों को अपनी अपनी जड़ों से गन्दगी ,कीडों
,घुनों
को हटाने की कड़ी और बड़ी कवायद करनी होगी। बहरहाल पत्रकारिता के एक और मंच पर
आत्मावलोकन का प्रयास हुआ है। सभी पत्रकार संगठन पत्रकारों को कसने, गढऩे,
मजबूत
बनाने के लिये कार्य करें ना कि पत्तलकारिता के पत्तल समेटने में अपनी उर्जा नष्ट
करें तो बेहतर होगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें