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बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल्स जहर बो रहे हैं ? जयेन्द्र सरस्वती -- श्रीदेवी निधन से उपजे सवाल

( चुभती बात- मनोज द्विवेदी)

अनूपपुर श्री देवी ने न केवल  बेहतरीन अभिनेत्री के रुप मे उन्होंने स्वयं को साबित किया..अपितु तीन दशक तक स्थापित रखा। उनके आकस्मिक निधन की खबरों से देश स्तब्ध रह गया। २८ फरवरी को उनका अन्तिम संस्कार किया गया  ऒर इसके साथ ही फिल्मी दुनिया का एक अध्याय समाप्त हो गया। 
‌इसी दिन कांची कामकोटि के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती के निधन की खबर ने देश को स्तब्ध कर दिया। हिन्दु धर्मावलम्बियों के लिये परमपूज्य शंकराचार्य जी का निधन जितनी बडी घटना / खबर थी , उसके महत्व से तमाम न्यूज चैनल्स या तो वाकिफ नहीं थे या फिर वैचारिक भिन्नता - टी आर पी के छुद्र लालच के कारण जिस स्तर पर खबर उठाई जानी चाहिये थी,नही उठाई गयी। दिनभर चैनल्स मुम्बई केन्द्रित रहे ,यह दिखलाते रहे कि श्री देवी की अन्तिम यात्रा कैसे पूरी हुई । शंकराचार्य के निधन की खबर फिल्मी चकाचौंध मे मानों दब कर रह गयी।यह दुखद था.. आपत्ति जनक भी।
  न्यूज चैनल्स समाज की आवश्यकता हैं तो विशाल दर्शकों की संख्या इन मीडिया हाउसेस की मजबूरी। क्योंकि ये दर्शक ही चैनल्स की टीआरपी बढाते हैं । इससे इन्हे बिजनेस मिलता है।वस्तुत: यह विशुद्ध व्यवसाय है। इसके चलते देश दुनिया,अमीरी - गरीबी का खटराग फैलाया जाता है। बहरहाल आज की चर्चा इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स की कार्यप्रणाली से अलग , समाज पर पडते उसके प्रभाव पर।जिस जबरिया तरीके से ये दर्शकों को कुछ भी,कैसे भी समाचार परोसते हैं ..ये न्यूज चैनल कम ,प्रोपेगंडा चैनल अधिक हो गये हैं। अब या तो जनता इन्हे देखना बन्द कर दे या इनके विरुद्ध सक्षम मंच पर आवाज उठाए।
  इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स का प्रादुर्भाव वस्तुतः किसी क्रांति से कम नहीं । बडी से बडी, छोटी से छोटी घटनाएं त्वरित तरीके से करोडों लोगों की नजरों के सामने होती है। प्रभावी ढंग से कैमरे अपना काम करते हैं। समाचार पत्र निश्चित समय बाद ही जनता के समक्ष खबरे प्रकाशित कर प्रस्तुत करते  है।लेकिन इलेक्ट्रॉनिक चैनल किसी घटना के विजुअल्स तत्काल पलक झपकते ,लाईव दर्शकों के सामने परोस देते हैं। यही उसकी ताकत ,यही उसकी विशेषता है। कैमरे के सामने आना, अपनी बात कहना,टीवी स्क्रीन पर दिखने के मोह ने चकाचौंध , इसके प्रति जो  आकर्षण बढाया है,उसके नफा नुकसान से देश अवगत है,परिणाम भोग रहा है। चैनलों मे क्या दिखे,कैसे दिखे,क्यों दिखे .. दिखे या न दिखे ,समाज - देश पर इसका क्या प्रभाव होगा ,इस पर  कोई विचार करने को तैयार नहीं । चैनलों के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने गुणवत्ताहीन  प्रस्तुतियों को उजागर किया है। किसी भी खबर को खबर की तरह न दिखला कर उसमे विचारों की मिलावट, गरमागरम बहस मंचीय नाटक से लगते हैं। बहुत से चैनल चटपटी,उत्तेजक,सनसनीखेज खबरों को खबर की तरह नहीं ,फिल्मों की तरह पेश करते हैं। श्री देवी - शंकराचार्य के निधन ,अंतिम संस्कार की खबरों मे जिस भेदभाव के दर्शन हुए ये कोई पहली बार नहीं हुआ है। हर हाईप्रोफाईल हत्या, मॊत, घटना के बाद तमाम चैनल मानो एक ही घटना के  गिरवी हो जाते हैं। टीआरपी की गुलामी जनता को दिन दिन भर या कयी कयी दिन चैनलों के कचरों को झेलने को बाध्य कर देते हैं। न यो इनके संपादको , न ही ऐंकरों पर किसी का नियंत्रण रहता है। जनता इतने बोझिल कार्यक्रम देख देखकर अपना धन ,समय,स्वास्थ्य ,मानसिकता सबकी क्षति झेलने को बेबस है। 
समय आ गया है जब इन सब पर नियंत्रण की कोई कारगर व्यवस्था जरुर हो । स्वतंत्र पत्रकारिता अपनी जगह , इसे नियंत्रित करने की न तो कोई मांग , न ही जरुरत है। लेकिन न्यूज चैनलों मे सिर्फ समाचार ही हों, किसी के विचार नहीं । समाचारों की पुनरावृत्ति , दिन मे कितनी बार चलाई जाए,कितने दिन चलाई जाए, आपराधिक घटनाओं के समाचार चलें या चैनल ही जांच, कार्यवाही , न्याय देने का कार्य करें ...इन सब पर विचार हो। विचारधाराओं की प्रस्तुति के लिये अलग चैनल हों तो क्राईम के लिये अलग। 

लोकतांत्रिक देश मे सब को अपनी बात कहने ,करने,मनवाने का तब तक हक है जब तक कि उससे किसी व्यक्ति, समाज ,देश को नुकसान न हो रहा हो। जब खबरनुमा प्रचार से झुंझलाहट होने लगे, समाज मे विद्वेश फैले, देश मे अराजकता को बढावा मिले तो इस पर गंभीरता से विचार जरुर होना चाहिए।

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