अनूपपुर। आदिवासी
साहित्य को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय
विश्वविद्यालय अमरकटंक के लुप्तप्राय:भाषा केंन्द्र और हिंदी विभाग के संयुक्त
तत्वावधान में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन में हाशिये का समाज और आदिवासी क्रेंद्रित साहित्य विषयक संगोष्ठी में आदिवासी साहित्य को संवेदना के साथ परखने पर जोर दिया गया।
विशिष्ट अतिथि
प्रो.गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि भारत की जड़ें आदिवासी जीवन से संबंधित हैं जिससे
काफी कुछ सीखा जा सकता है। ऐसे में आदिवासी साहित्य को पूरी संवेदना के साथ देखने
और परखने की आवश्यकता है। प्रो.विभूति नारायण राय ने आदिवासियों की सामाजिक और
आर्थिक समस्याओं पर कहा कि आदिवासी समाज की चुनौतियां काफी अलग हैं और इन
चुनौतियों को सभी के सामने प्रस्तुत करना नए साहित्यकारों का कर्तव्य है।
लुप्त भाषा
केंन्द्र के निदेशक प्रो.दिलीप सिंह ने आदिवासी लोक साहित्य और भारतीय भाषाओं में
लिखित आदिवासी केंद्रित साहित्य पर नई दृष्टि से विचार करने का सुझाव दिया। कुलपति
प्रो.टी.वी. कटटीमनी ने आदिवासी साहित्य में उनकी दैनिक दिनचर्या,खानपान और लोक कलाओं को भी समाहित करने पर जोर दिया। इस अवसर पर प्रो. दिलीप
सिंह की दो पुस्तकों कहां-कहां से गुजर गया और उजडे दायरों का बेबाक अफसाना का विमोचन भी हुआ।
दो दिवसीय
राष्ट्रीय संगोष्ठी में शशि नारायण स्वाधीन, बाबूराव देसाई, डॉ.संजीव रायप्पा, डॉ.संजय यशवंत लोहकरे, डॉ. हरि प्रसाद दुबे, डॉ. सुरेंद्र कुमार नायक, डॉ. भावेश जाधव, डॉ. राम अहलाद चौधरी आदि ने अपने आलेख और विचार प्रस्तुत किए। संगोष्ठी में
महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के
आदिवासी साहित्य के प्रमुख लेखकों ने भाग लिया। इससे पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो.
रेनू सिंह ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। संगोष्ठी में डॉ.आशुतोष सिंह, डॉ.वीरेंद्र प्रताप सहित हिंदी विभाग के शिक्षकों, छात्रों और शोधार्थियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया।
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